Thursday, March 29, 2012

बेकरार साहब की नायाब कविता - ‘भूख’

बेकरार साहब आज नहीं हैं, पर उन्होंने आज के निर्मम सच को कहने वाली जैसी जलती हुई कविताएँ लिखी हैं, वैसी कविताएँ आज बहुत कम पढ़ने को मिलती हैं। इनमें ‘भूख’ तो लाजवाब कविता है जिसे पढ़ते ही बेकरार साहब का आविष्ट चेहरा आँखों के आगे आ जाता है। ‘भूख’ कविता को खुद बेकरार साहब के मुँह से सुनना एक अलग अनुभव था। मुझे याद है, जब मैंने सिरसा के प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन में भीष्म साहनी जी को, जिनकी अध्यक्षता में यह सम्मेलन हुआ था, यह कविता सुनवाई, तो वे अवाक-से रह गए थे। फिर बोले, “वाकई बहुत पावरफुल कविता है!” बेकरार साहब पानीपत के थे और सारा पानीपत इस फक्कड़ और अलमस्त कवि को बहुत प्यार करता था। आज बेकरार साहब नहीं हैं, पर यह कविता आज भी हमें उस विलक्षण और खुरदरे कवि की याद दिला देती है -

क्या यह त्रासदी नहीं है –
कि मेरी भाषा के विशाल शब्दकोश में
भूख का कोई पर्यायवाची नहीं है।
और मेरा यह कहना
कि मैं भूखा हूँ
इतना भी संप्रेषित नहीं कर पाता
जितना मेरा यह कहना
कि तुहारे पाँव के नीचे साँप है
या तुम्हारे मकान में आग लग गई है!

निश्चित रूप से
मैं उस भूख की बात नहीं करता
जो तुम्हें नाश्ते और दोपहर के बोजन
के बीच लगती है।
मैं तो उस भूख की बात करता हूँ
जो रोज आधी ही मिट पाती है
और दूसरे दिन की भूख से जुड़ जाती है
चिपेक देती है तुम्हारे चेहरे पर
कोई याचक मुद्रा
तोड़ देती है हमारा मेरुदंड
उम्र की रफ्तार बढ़ा देती है।
छोड़ देती है बस इतना पौरुष बाकी
कि हम पत्नी को डाँट सकें
या पैदा कर सकें एक और अपने जैसा!
वरना हर बात में नामर्द बना देती है
सीमाविहीन सभ्य।

यह अर्ध-भूखापन
मौत और जिंदगी के बीच
कहीं जीने की दारुण पीड़ा
एक सुलगता एहसास,
बोलकर कहने से
बन जाता है रुदन मात्र
और रोना नहीं है समस्या का समाधान,
आप कुछ समझे श्रीमान!
किसलिए है बोलने की आजादी का विधान?

भूख और भोजन के बीच आते हैं
भाग्य, भाषा, भगवान और भाषण
भ्रांतियाँ, भांड और भद्रपुरुष
सबके सब एक झुनझुना हमारे हाथों में थमा देते हैं
ताकि हम झनकाते रहें,
और बना देते हैं एक सेफ्टी वाल्व
ताकि भाप संपीड़ित न हो पाए
एक शक्ति न बनने पाए
इंजन की तरह,
वरना हम नई सभ्यता में चले जाएँगे
और इन लोगों के काम नहीं आएँगे!

फिर भूखे को भिखारी बनाकर
भीख देने वाली
इस गौरवशाली सभ्यता का क्या होगा?
भूखे सौंदर्य को नंगे नाच और अनिच्छित सहवास के बाद
भोजन देने वाली इस महान संस्कृति का क्या होगा!

उनकी भी समस्याएँ हैं
बात को एकतरफा मत सोचो,
भीख कम है तो सूर्य-नमस्कार करो
वो चाहते हैं कहीं कुछ न उठे –
कोई सिर, कोई हाथ कोई नारा!

Saturday, May 28, 2011

याद आते हैं सत्यार्थी जी







समर्पण--

उन सभी को जिनकी स्मृतियों में
सत्यार्थी जी का प्रसन्न चेहरा
और जिंदादिली से भरी सदाबहार शख्सियत
आज भी दस्तक देती है।



लोक साहित्य का वह युगनायक

सत्यार्थी जी आज होते तो एक सौ तीन बरस के होते। हालाँकि लोकगीतों का वह फक्कड़ फकीर आज नहीं है, यकीन नहीं होता। अपने बाद वाली पीढ़ी को इतने प्यार से गले लगाने वालों में या तो मैंने बाबा नागार्जुन को देखा था या फिर सत्यार्थी जी को, जिनका प्यार हर मिलने वाले पर न्योछावर होता था। उनकी जन्मशताब्दी आई और चुपचाप चली गई। उनकी जीवनी मैं लिख रहा था और चाहता था कि उनके जन्मशताब्दी वर्ष में ही आ जाए। पर वह हो नहीं सका। मैं ही उसे पूरा नहीं कर सका था। अब शायद कुछ ही समय में वह छपकर आ जाए। आज सत्यार्थी जी का जन्मदिन है, तो मन में घुमड़ती उनकी यादों के साथ ही उन पर लिखी गई इस जीवनी-पुस्तक की कहानी यहाँ दे रहा हूँ। शायद मित्रों को उसे पढ़ना सुखकर लगे--


लोक यायावर देवेंद्र सत्यार्थी उन युगनायकों में से थे जिन्होंने लोकगीतों को अपार प्रतिष्ठा दिलवाई और स्वाधीनता संग्राम में लोक की बड़ी और रचनात्मक भूमिका को रेखांकित किया। कोई बीस साल तक उन्होंने भारत के गाँव-गाँव की परिक्रमा कर, जनगंगा की भावधाराओं की तरह दूर-दूर तक पसरी टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों को अपने धूलभरे पैरों और अथक इरादों से नापते हुए देश का चप्पा-चप्पा छान मारा। यहाँ तक कि बर्मा और लंका भी हो आए। और वह भी खाली जेब। लेकिन जहाँ वे जाते, वहाँ उनकी असाधारण लगन से प्रभावित होने वाले लोग मिल जाते। कहीं रुकने और खाने-पीने का थोड़ा इंतजाम हो जाता और लोकयात्री अपना थैला उठाकर अगले मुकाम की ओर बढ़ जाता। लोग ही उनकी अगली यात्रा के लिए बस या रेलगाड़ी के किराए का इंतजाम कर देते और लोकगीतों की तलाश में निकले सत्यार्थी जी का अकेले का यह अद्भुत कारवाँ बिना थके आगे बढ़ता ही जाता।

बाद में विवाह हुआ तो पत्नी शांति भी सहयात्री हो गईं। नन्ही कविता का जन्म भी इसी सफर में हुआ और वह भी एक नन्ही सहयात्री हो गई। इसी अथक लोकयात्रा में महात्मा गाँधी और गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर का आशीर्वाद मिला और दोनों ने ही बड़े भावपूर्ण शब्दों में सत्यार्थी जी के काम के महत्व को रेखांकित करते हुए, इसे देश का काम बताया, जिसमें लोक हृदय की सच्ची झाँकी है। रवींद्रनाथ ठाकुर ने इसे राष्ट्रीय-सांस्कृतिक जागरण माना और याद किया कि बचपन में उनका यह सपना था कि वे बैलगाड़ी में बैठकर पूरे बंगाल की परिक्रमा करें और पल्ली गीतों (बांग्ला लोकगीतों) का संग्रह करें। गुरुदेव का वह सपना भले ही पूरा नहीं हो सका, पर सत्यार्थी जी की अनोखी धुन में उन्हें उसी सपने की जगमगाहट नजर आई। उन्होंने इस निराले खानाबदोश की डायरी में एक कविता की ये पंक्तियाँ लिखीं, ‘‘ओ खानाबदोशो, मेरे शब्दों में छोड़ जाओ, अपनी खुशबू!’’

गाँधी जी हों या गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर, दोनों ही सत्यार्थी जी को अकसर चर्चाओं के लिए बुलाते थे और उनसे विस्तार से उनकी अनजानी लोकयात्राओं और उनसे हासिल हुए सुंदर भावपूर्ण और रंग-रँगीले लोकगीतों की बाबत पूछते थे। शांतिनिकेतन तो एक तरह से सत्यार्थी जी का हॉल्ट स्टेशन था। कहीं भी आते-जाते हुए अपनी अनिश्चित यात्राओं के बीच वे शांतिनिकेतन जाने का अवसर जरूर निकाल लेते। वहाँ संथाल आदिवासियों के लोकजीवन को निकट से देखने-जानने के साथ-साथ गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर से खुली अनौपचारिक चर्चाओं का सुख मिलता था। गुरुदेव ने उनसे कहा था कि वे जब भी शांतिनिकेतन में हों, शाम की चाय के समय उनसे मिलने और चर्चा के लिए जरूर आएँ।

सत्यार्थी जी के लिए यह दुर्लभ सुख था। कवींद्र रवींद्र के सृजन-क्षणों को नजदीक से महसूस करने और उनसे विभिन्न विषयों पर विचार-विनिमय का यह अवसर सत्यार्थी जी की लोकयात्राओं के लिए मानो पाथेय बन गया। इससे अपनी कठिन और दुर्गम यात्राओं के लिए उन्हें खासी ऊर्जा और नैतिक बल मिला। और बेशक इससे गाँवों की धूलभरी पगडंडियाँ उनके लिए घर सरीखी होती चली गईं, जहाँ अपनी धुन में मगन उनके कदम आगे बढ़ते जाते, बढ़ते ही जाते। रास्ते में गाँव वालों से मिलना, उनसे गीत सुनकर उन्हें कापी में उतारना, उनमें आने वाले आंचलिक शब्दों और लोक परंपराओं की जानकारी लेकर उनके भाव को समग्रता से ग्रहण करना और फिर आगे की यात्रा। इसी यात्रा में देश के हर अंचल की भाषाएँ सीख लीं गईं। ऐसे लोग भी मिले जिनकी मदद से गीत के मूल भाव को ग्रहण कर पाने में आसानी हुई। फिर इन लोकगीतों पर सत्यार्थी जी ने जो लेख लिखे, उनकी दूर-दूर तक धूम रही। ‘हंस’, ‘विशाल भारत’ और ‘प्रीतलड़ी’ के अलावा, ‘मॉडर्न रिव्यू’ और न्यूयार्क से निकलने वाली ‘एशिया ’ पत्रिका तक ने उन्हें बड़े सम्मान से छापा।

खुद गाँधी जी विशाल भारत में छपने वाले सत्यार्थी जी के लेखों को बहुत रस लेकर पढ़ते थे। इसका जिक्र उन्होंने सत्यार्थी जी को लिखे एक आत्मीय पत्र में किया है। और सन् 1936 के फैजपुर कांग्रेस अधिवेशन में गाँधी जी ने काका कालेलकर को खास तौर से भेजकर सत्यार्थी जी को उस अधिवेशन में शिरकत करने के लिए बुलाया था। वहाँ सत्यार्थी जी ने लोकगीतों पर मुक्त मन से व्याख्यान दिया, तो उनके मुँह से भारत की गुलामी की पीड़ा से जुड़ा एक करुण लोकगीत सुनकर गाँधी जी ने भावुक होकर कहा, ‘‘मेरे और जवाहरलाल के सारे भाषण एक पलड़े में रख दिए जाएँ और दूसरे में यह अकेला लोकगीत, तो लोकगीत का पलड़ा ही भारी रहेगा।’’


इससे पता चलता है, लोकयात्री देवेंद्र सत्यार्थी ने उस दौर में लोक और लोकगीतों को राष्ट्रीय जागरण का पर्याय बनाकर कैसे जन-जन में प्रतिष्ठित कर दिया था। शहरों के पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी लोग हों या लेखक, प्राध्यापक, समाज-सुधारक, राजनेता सबका ध्यान लोकगीतों की तरफ गया, जिनमें धरती का हृदय बोलता है और लाखों लोगों के सुख-दुख की अकथ कहानियाँ और सीधी-सच्ची भावनाएँ छिपी हैं। यही वजह है कि बीसवीं सदी के साहित्यिक, सामाजिक या राजनीतिक फलक पर मौजूद शायद ही कोई बड़ी शख्सियत हो, जिससे सत्यार्थी जी की मुलाकात न हुई हो। पं. मदनमोहन मालवीय, राजगोपालाचार्य, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, के.एम. मुंशी, शरत, प्रेमचंद, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, कलागुरु अवनींद्रनाथ ठाकुर, नंदलाल बसु, रामकिंकर, राहुल सांकृत्यायन, अज्ञेय सबसे उनकी अंतरंग मुलाकातें हुईं। और मंटो, बेदी, कृश्न चंदर तो उनके समकालीन ही थे जिनके साथ उनकी कहानियाँ उर्दू के रिसालों में बड़ी धूम से छपती थीं।

यों लोकयात्री देवेंद्र सत्यार्थी के समूचे जीवन पर नजर डालें, तो उनके जीवन के बस, दो ही बीज शब्द थे, ‘यात्रा’ और ‘लिखना’। कोई पचानबे वर्ष लंबे उनके जीवन के पूर्वार्ध में यात्रा, यात्रा और यात्रा समाई हुई थी, तो उत्तरार्ध में लिखना, लिखना और निरंतर लिखते-लिखते ही जीना, यही उनके जीवन का मूल मंत्र बन चुका था। हालाँकि चाहे उनका एक अलग राह लेता बचपन हो या तरुणाई की अनथक यात्राएँ और बाद के दौर का खुद में डूबा-डूबा सा लेखन, रचनात्मकता की एक निरंतर कशिश उन्हें हमेशा खींचती और लुभाती रही। और इसी ने लोकगीतों पर ‘धरती गाती है’, ‘बेला फूले आधी रात’, ‘बाजत आवे ढोल’ और ‘धीरे बहो गंगा’ जैसी कालजयी कृतियाँ देने के साथ-साथ सत्यार्थी जी को सर्जनात्मक क्षेत्र में आगे बढऩे के लिए प्रेरित किया। उनकी कहानियाँ हों, कविताएँ, लेख, संस्मरण, रेखाचित्र या उपन्यास, सबमें धरती और खानाबदोशी की गंध बसी है जो उन्हें भीड़ में एक अलग पहचान देती है।

और फिर सत्यार्थी जी की बातों में इतना सम्मोहन था कि उनसे मिलने को मन ललकता था। बार-बार मिलना होता था और देर तक मिलने पर बातों और किस्सों की मीठी सुवास! सत्यार्थी जी कभी सीधी लीक नहीं चले, हमेशा मन की मौज में जिए। इसीलिए उनसे अकसर होती बातचीत और ‘रचनात्मक संवाद’ भी इतने आत्मीय और ताजगी से लबरेज होते थे कि उन्हें भुला पाना कठिन है। मुझे याद है, उम्र के आखिरी चरण में भी जब पूछा गया कि क्या वे अपनी सृजन-यात्रा से संतुष्ट हैं या अभी कुछ और लिखना बाकी है, तो उनका अथक उत्साह और निश्छलता से भरा जवाब था, ‘‘देखिए, चैन तो मुझ बेचैन आदमी को कभी है ही नहीं और शायद मरकर भी नहीं होगा। मैं तो बस लिखते...लिखते...लिखते ही जाना चाहता हूँ। आजकल अपनी आत्मकथा का चौथा और आखिरी खंड ‘अमृतयान’ पूरा करने में लगा हूँ।’’

‘अमृतयान’ वे पूरा नहीं कर सके, पर उनकी अधूरी पांडुलिपियों की पुकार में बहुत कुछ ऐसा है, जिससे समझा जा सकता है कि उनकी वह बेचैनी क्या कुछ लिख पाने की बेचैनी थी। और अगर ‘अमृतयान’ पूरा होता तो उसके जरिए कौन सी कही-अनकही कहानियाँ सामने आ सकती थीं? उनकी अधूरी पांडुलिपियों में अमृतयान का पूरा नक्शा मौजूद है, जिससे उनकी आत्मकथा को देर-सबेर एक व्यवस्थित शक्ल दी जा सकती है।


फिर याद आती हैं, उनसे हुई बातें, अनवरत बातें, जिनमें पूरी एक सदी का जीवंत इतिहास छिपा है। उनसे मिलकर बातें करते हुए लगता था, मानो हम इतिहास के चक्करदार मोड़ों और बड़े गुंबदों के नीचे जा पहुँचे हैं, जहाँ हर क्षण कुछ न कुछ नया और विस्मयकारी घट रहा है। हम उस दौर के साहित्य, संगीत, कला, संस्कृति और फिल्म-जगत ही नहीं, सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों की बड़ी से बड़ी शख्सियतों के रूबरू खड़े, उनकी बातें सुन रहे हैं। और होते-होते किसी जादू-मंतर की तरह खुद हम भी उस दौर का एक अनिवार्य हिस्सा हो जाते थे, जिसमें वह समय अपनी समूची हलचल और धड़कनों के साथ हमारे भीतर बहने लगता था।

यों सत्यार्थी जी जब-जब मिलते, तो बातें तो होती ही थीं। बातें, बातें और अंतहीन बातें जिनमें आज के समय के साथ-साथ पुरानी यादों का एक पूरा सैलाब नजर आता। मैं उनमें बहता, तो बहता ही जाता था। पर मन था कि थोड़ी व्यवस्थित बातचीत हो जिससे उनकी पूरी जीवन-कथा की झाँकी सामने आए। और सौभाग्य से उसका अवसर भी आ गया। सत्यार्थी जी जब नवीं दहाई को छू रहे थे, उनसे कई दफा लंबी बातचीत का मौका मिला। कभी-कभी तो यह बातचीत दिन भर भी चलती। कहीं न कहीं लोभ यह भी था कि पंख फडफ़ड़ाकर उड़ती चिडिय़ों सरीखी उनकी स्मृतियाँ कहीं एक सिलसिले में बँध जाएँ, ताकि उनके जीवन-संघर्षों का एक सुविव्यस्त कथा सामने आए।

सत्यार्थी जी जैसे कद्दावर शख्सियत वाले बीहड़ और औघड़ शख्स के आगे बार-बार मेरी कोशिश विफल होती। लेकिन अंतत: कई टेढ़े-मेढ़े घुमावों के बावजूद एक लंबी बातचीत हुई, जो एक पुस्तक के रूप में सामने आई। सत्यार्थी जी की जीवन-कथा लिखने बैठा, तो उन्हीं में से एक कुछ बातें फिर-फिर यादों के दरिया में से उझक-उझककर सामने आ गईं। आती ही गईं। एक अनवरत सिलसिला।


आज लगता है, जादू के परों पर सवार थे वे दिन। फरीदाबाद से सत्यार्थी जी के निवास, दिल्ली की नई रोहतक रोड तक का करीब-करीब दो-ढाई घंटे का सफर। घर से सुबह-सुबह निकलता था, फिर भी मन में हल्की-सी धुकुर-पुकुर। कहीं ऐसा तो नहीं कि घर से निकल गए हों किसी काम से? या फिर स्वास्थ्य...? मैं मन ही मन उनके जीवट और उनकी जीवनी शक्ति को प्रणाम करता। पर कई बार मन में एक हलका भय भी कौंधता, कहीं किसी क्षण डाल से टपक ही गए तो? कई बार अजीब-सा भ्रम होता। अभी हैं, अभी नहीं! यों सत्यार्थी जी के होने में जिस एक और व्यक्ति का जीवट जुड़ा हआ है, सत्यार्थी से भी बड़ा जीवट—वे थीं लोकमाता। सत्यार्थी जी की पत्नी, जिन्होंने खुद को तिल-तिल गलाकर भी, परिवार की सारी जिम्मेदारियाँ खुद ओढ़कर अपने इस दाढ़ी वाले मस्त कलंदर को मुक्त और बेफिक्र रखा, जी भरकर घूमने, यात्राएँ करने और लिखने के लिए।

अकसर मैं वहाँ जाता तो घर का दरवाजा हमेशा की तरह खुला होता। जैसे कह रहा हो, यह एक ऐसे घर का दरवाजा है जहाँ बगैर खटखटाए कोई भी भीतर जा सकता है। मैं चुपके से भीतर जाकर झाँकता। देखता, सत्यार्थी जी हैं, अपनी उसी आरामकुर्सी पर समाधि लगाए हुए लिख रहे हैं। पास ही रखा टीवी अपनी धुन में कुछ बोलता जा रहा है और उससे एकदम बेपरवाह सत्यार्थी अपनी धुन में कुछ लिखते जा रहे हैं। हाँ, एक बात जरूर है। पहले अकसर सत्यार्थी के आसपास रेडियो चल रहा होता था और बाद के दिनों में टीवी जिसे सत्यार्थी जी देखते कम, शायद सुनते ज्यादा थे। रेडियो की ही तरह। हाँ, उन्हें लेकिन ऐसे किसी ‘दोस्त’ या एकांत के साथी की दरकार जरूर थी। कोई आवाज,कोई ध्वनि, संगीत...कानों में कुछ पड़ता रहना चाहिए जरूर। बस, सत्यार्थी जी की इससे समाधि लग जाती थी।


याद पड़ता है, मेरे चुपचाप भीतर पहुँचने पर भी अकसर सत्यार्थी जी की लिखने की समाधि टूटती नहीं थी। वे हलका-सा चौंककर इधर-उधर देखते थे। फिर धीरे-से अपने काम में लग जाते थे। और मैं दुविधा में ठिठका सा वहीं खड़ा रहता, जैसे तय न कर पा रहा होऊँ कि क्या मैं आगे बढ़ूँ या उन्हें यों ही काम करते देखता रहूँ कुछ देर और...? आगे कुछ सोचूँ, इससे पहले ही उस सफेद-सी छाया के प्रभाव में आ जाता, जो धीरे-धीरे डगमगाते कदमों से दरवाजे की ओर बढ़ रही होती। लोकमाता! सत्यार्थी जी की पत्नी, जिन्हें बाद में चलकर सत्यार्थी जी इसी नाम से पुकारने लगे थे।
‘मनु...।’ माता जी के चेहरे पर एक प्रसन्नता मिश्रित चमक उभरती। वही काँपती हुई, लरजती आवाज। मैं उनके पैरों की ओर बढ़ता, तो वे प्यार से मेरा सिर थपथपा देतीं। और फिर सत्यार्थी जी भी कागज-पत्तर एक ओर रख, प्रसन्नता से हँसकर मेरा हाथ थाम लेते।

थोड़ी देर में एक छोटी-सी, मामूली सी ट्रे में जिसका लाल रंग कभी का बुझ चुका था, वे दो कप चाय लेकर आतीं और एक प्लेट में थोड़े से बिस्कुट। कई बार उन प्यालों की ऊपर की किनोर टूटी हुई लगती। लेकिन इससे न उन बातों का रस कम होता और न लोक यायावर से मिलने का आनंद, जिनमें न जाने कौन-कौन सी यादों के काफिले आकर शामिल हो जाते और एक अव्याख्येय सुख की नदी बहने लगती। और यों बातें, बातें, अनवरत बातें। बातों का यह अजस्र सिलसिला कब शुरू हुआ, कुछ पता ही नहीं चलता था। उनमें से बहुत सी बातें और यादें इस पुस्तक को लिखने में मददगार बन गईं।


फिर आकाशवाणी के अभिलेखागार के लिए उनका एक लंबा और अनौपचारिक इंटरव्यू करने का सुयोग मिला, जो लगातार कई दिनों तक चला। ठीक वैसा ही जैसे अज्ञेय, बनारसीदास चतुर्वेदी आदि के लंबे इंटरव्यू वहाँ हो चुके थे और वे पुस्तकाकार भी सामने आए। सत्यार्थी जी को जब इस योजना के बारे में बताया गया, तो उन्होंने बड़े मुक्त भाव से उन्होंने मुझे आश्वस्त किया एक पारिवारिक बुजुर्ग की तरह, ‘‘जब भी आपका जी चाहे, रख लीजिए।’’

और सच में वह एक यादगार बातचीत रही, जिससे उनकी औघड़ जिंदगी की ऊबड़-खाबड़ पगडंडियों के बारे में बहुत सी नई और यादगार बातें पता चलीं। बातचीत में वाकई उनका सुर बँध गया। हाँ, बीच-बीच में कुछ नाम सत्यार्थी जी जरूर भूलने लगे थे। कभी-कभी कोई किस्सा सुनाने लगते, तो आसपास की गलियों, कूचों, खड्डों-खाइयों में इस कदर बिला जाते हैं कि लगता है, असली बात तो छूट ही गई। पर नहीं, इधर-उधर की सत्रह गलियों को पार करने के बाद के शुरुआती और आखिरी छोर को जब वह उस्तादाना कौशल से जोड़ रहे होते, तब समझ में आ जाता कि यह बूढ़ा जादूगर कैसी हस्ती है। फिर सत्यार्थी जी के समूचे सृजनात्मक लेखन, खासकर कहानियों और संस्मरणों में उनकी आत्मकथा और गुजरे वक्त के यहाँ-वहाँ बिखरे हुए सूत्र मौजूद हैं। उनसे भी बहुत मदद मिली। सत्यार्थी जी की आत्मकथा भी बहुत सहायक हुई। भले ही आत्मकथा के बाद के खंडों में अमूर्तन और बिखराव अधिक हो, पर उनकी जीवन-कथा के बहुत जरूरी वृत्तांत वहाँ संकेतों और सूत्र-रूप में हैं।


यों भरा-पूरा जीवन जीकर गए लोकयात्री सत्यार्थी सच में एक इतिहास-पुरुष हैं। कोई पचानबे वर्ष बगैर किसी राग-द्वेष के जी गया एक लोक-पुरुष, जिसने अनंत यात्राएँ की हैं और और लोक साहित्य तथा उसकी विरासत को आगे आने वाली पीढिय़ों के लिए सहेजकर रखा। साथ ही उनका विपुल सृजनात्मक लेखन भी मानो पुनर्मूल्यांकन की चुनौती के साथ हमारे सामने मौजूद है। अपने जीवन-काल में ही जीवित किंवदंती बन चुके देवेंद्र सत्यार्थी और उनके सदाबहार व्यक्तित्व के कुछ अक्स इस पुस्तक के जरिए पाठकों तक पहुँच सकें तो मुझे लगेगा कि यह श्रम सार्थक हो गया।

Thursday, May 26, 2011

हमने बाबा को देखा है

बाबा नागार्जुन के निधन पर एक कविता लिखी थी जिसमें बाबा के गुस्से, प्यार, तंज और उदासी से जुड़े तमाम-तमाम मूड्स और खिलंदड़ी अदाएँ हैं। उनसे हुई बहुतेरी मुलाकातों की स्मृतियाँ भी। यह कविता आजकल के बाबा नागार्जुन विशेषांक में छपी है। शायद मित्रों को यहाँ उसे पढ़ना सुखकर लगे। तो लीजिए, पढ़िए यह कविता, हमने बाबा को देखा है--

हमने बाबा को देखा है

प्रकाश मनु

सादतपुर की इन गलियों में
हमने बाबा को देखा है!

कभी चमकती सी आँखों से
गुपचुप कुछ कहते, बतियाते,
कभी खीजते, कभी झिड़कते
कभी तुनककर गुस्सा खाते।
कभी घूरकर मोह-प्यार से
घनी उदासी में छिप जाते,
कभी जरा सी किसी बात पर
टप-टप-टप आँसू टपकाते।
कभी रीझकर चुम्मी लेते
कभी फुदककर आगे आते,
घूम-घूमकर नाच-नाचकर
उछल-उछलकर कविता गाते,
लाठी तक को संग नचाते
सादतपुर की इन गलियों में
हमने बाबा को देखा है!

जर्जर सी इक कृश काया वह
लटपट बातें, बिखरी दाढ़ी,
ठेठ किसानी उन बातों में
मिट्टी की है खुशबू गाढ़ी।
ठेठ किसानी उन किस्सों में
नाच रहीं कुछ अटपट यादें,
कालिदास, जयदेव वहाँ हैं
विद्यापति की विलासित रातें।
एक शरारत सी है जैसे
उस बुड्ढे की भ्रमित हँसी में,
कुछ ठसका, कुछ नाटक भी है
उस बुड्ढे की चकित हँसी में।

सोचो उस बुड्ढे के संग-संग,
उसकी उन घुच्ची आँखों से,
हमने कितना कुछ देखा है!

सादतपुर की इन गलियों में
हमने बाबा को देखा है!

कहते हैं, अब चले गए हैं
क्या सचमुच ही चले गए वे?
जा सकते हैं छोड़ कभी वे
सादतपुर की इन गलियों को,
सादतपुर की लटपट ममता
शाक-पात, फूलों-फलियों को?

तो फिर ठाट बिछा है जो यह
त्यागी के सादा चित्रों का,
और कृषक की गजलें, या फिर
दर्पण से बढिय़ा मित्रों का।
विष्णुचंद्र शर्मा जी में जो
कविताई का तंज छिपा है,
युव पीढ़ी की बेचैनी में
जो गुस्सा और रंज छिपा है।
वह सब क्या है, छलक रहा जो
सादतपुर की इन गलियों में,
मृगछौनों सा भटक रहा जो
सादतपुर की इन गलियों में।
यह तो सचमुच छंद तुम्हारा
गुस्से वाली चाल तुम्हारी,
यही प्यार की अमिट कलाएँ
बन जाती थीं ढाल तुम्हारी।
समझ गए हम बाबा, इनमें
एक मीठी ललकार छिपी है,
बेसुध खुद में, भीत जनों की
इक तीखी फटकार छिपी है!

जो भी हो, सच तो इतना है
(बात बढ़ाएँ क्यों हम अपनी!)
सादतपुर के घर-आँगन में
सादतपुर की धूप-हवा में,
सादतपुर के मृदु पानी में
सादतपुर की गुड़धानी में,
सादतपुर के चूल्हे-चक्की
और उदास कुतिया कानी में—
हमने बाबा को देखा है!

सादतपुर की इन गलियों में
हमने बाबा को देखा है!

करते हैं अब यही प्रतिज्ञा
भूल नहीं जाएँगे बाबा,
तुमसे मिलने सादतपुर में
हम फिर-फिर आएँगे बाबा,
जो हमसे छूटे हैं, वे स्वर
हम फिर-फिर गाएँगे बाबा।

स्मृतियों में उमड़-घुमड़कर
आएँगी ही मीठी बातें,
फिर मन को ताजा कर देंगी
बड़े प्यार में सीझी बातें!

कई युगों के किस्से वे सब
राहुल के, कोसल्यायन के,
सत्यार्थी के संग बिताए
लाहौरी वे दिन पावन-से।
बड़ी पुरानी उन बातों को
छेड़ेंगे हम, दुहराएँगे,
दुख हमारे, जख्म हमारे
उन सबमें हँस, खिल जाएँगे।

तब मन ही मन यही कहेंगे
उनसे जो हैं खड़े परिधि पर,
तुम क्या जानो सादतपुर में
हमने कितना-कुछ देखा है!
काव्य-कला की धूम-धाम का
एक अनोखा युग देखा है।
कविताई के, और क्रांति के
मक्का-काबा को देखा है!

सादतपुर की इन गलियों में
हमने बाबा को देखा है!

हम बाबा के शिष्य लाड़ले
हम बाबा के खूब दुलारे,
बाबा के नाती-पोते हम
बाबा की आँखों के तारे।
हम बाबा की पुष्पित खेती
हममें ही वे खिलते-मिलते,
हमसे लड़ते और रीझते
हममें ही हँस-हँसकर घुलते।

हमको वे जो सिखा गए हैं
कविताई के मंत्र अनोखे,
हमको वे जो दिखा गए हैं
पूँजीपति सेठों के धोखे।
और धार देकर उनको अब
कविताई में हम लाएँगे,
दुश्मन के जो दुर्ग हिला दे
ऐसी लपटें बन जाएँगे।
खिंची हुई उनसे हम तक ही
लाल अग्नि की सी रेखा है!
हमने बाबा को देखा है!

सादतपुर की इन गलियों में
हमने बाबा को देखा है!

Wednesday, May 25, 2011

रमेश तैलंग के बालगीतों का शरारती अंदाज



रमेश तैलंग की बात चलेगी, तो थोड़ा पीछे जाना होगा। थोड़ा नहीं, काफी।...ओह, होते-होते कोई बाईस-तेईस बरस तो हो ही गए। या शायद ज्यादा। और यह शख्स जो कि कवियों का कवि है और एक सदाबहार इनसान, नहीं बदला। हरगिज नहीं बदला। पहली बार जैसा देखा था, हूबहू आज भी वैसा ही।

बात मेरे खयाल से सन 88 की रही होगी। नंदन में आए हुए मुझे कोई दो बरस हो गए थे और बाल साहित्य में खूब डुबकियाँ लगाने लगा था। भारती जी ने नंदन के लिएए कविताएँ चुनने का जिम्मा मुझे दिया था। जो मेरी पसंद की कविताएं होतीं, मैं प्रकाशनार्थ आई ढेर सारी कविताओं में से चुनकर उन्हें दिखा देता। आम तौर से उनमें से ही वे कविताएँ फाइनल कर लेते और फिर मैं कविता का पेज बनवाने की तैयारियों में लग जाता। इस बहाने हर महीने ढेरों कविताएँ पढ़ने को मिलतीं। अच्छी भी, साधारण भी। फिर नंदन के पुराने अंकों को देखा तो एक से एक दिग्गज लेखक वहाँ मौजूद थे, जिनमें दिनकर, प्रभाकर माचवे, भवानी भाई, वीरेंद्र मिश्र, रामावतार त्यागी, सेवक जी, माहेश्वरी जी...और यहाँ तक कि फणीश्वरनाथ रेणु, ममता कालिया और कृष्णा सोबती की बाल कविताएँ। पहली बार जाना कि बाल कविताओं के परिदृश्य में कितना कुछ समाया हुआ है। पढ़कर लगभग नशे की हालत थी। खुद भी लिखता था और मन में कहीं न कहीं यह सपना भी जाग ररहा था कि बाल कविताओँ में कितना कुछ काम हुआ हहै, यह लोगों को बताना चाहिए।

उन दिनों देवेंद्र भी बहुत अच्छी बाल कविताएँ लिख रहे थे। मैं उनकी बाल कहानियों का आनंद ले चुका था। बाल कविताओं के अँदाज से भी धीरे-धीरे परच ररहा था। तभी एक दिन उन्होंने एक नए और अपरिचित शख्स की कुछ बाल कविताएं दिखाईं और कहा, जरा देखिए मनु जी, ये कविताएँ कैसी हैं। ये शख्स भी हिंदुसस्तान टाइम्स में हैं--विज्ञापन विभाग में।

मैंने सोचा था, फुर्सत में पढ़ूँगा कविताएँ। हाँ एक बानगी ले लूँ। पर शुरू में ही अले, छुबह हो गई, टिन्नी जी और ढपलू जी रोए आँ...ऊँ सरीखी कविताएँ पढ़कर मैं तो जैसे उछल पड़ा--अरे वाह, ये होती हैं कविताएँ तो। बड़े दिनों बाद ऐसी कविताएँ पढ़ीं कि मन झूम उठा। लगा, किसी तरह ईश्वर बच्चा बना दे, ताकि इन कविताओँ का पूरा आनंद ल सकूँ।

बाद में देवेंद्र जी ने पूछा कि मनु जी, आपने पढ़ लीं कविताएं, कैसी लगीं। मैंने कहा, देवेंद्र जी, आप पूछ रहे हैं, कैसी लगीं। जबकि मैं तो इन्हें पढ़कर सच्ची-मुच्ची पागल हो गया, जैसे जमीन पर ही नहीं हूँ। अद्भुत है यह शख्स। है कहाँ, जल्दी से मिलवाइए। जरा अपनी छाती से लगा लूँ, नहीं तो चैन नहीं पड़ेगा मुझे।

तब से तो नदी में बहुत पानी बह गया। और तैलंग की कविताएँ ही नहीं, कविता कहने का हुनर भी खूब निखरता गया, निखरता ही गया। आाज कोई पूछता है कि मनु जी, अच्छी कविताएँ कैसी होती हैं...तो पुराने कवियों में तो शेरजंग गर्ग, दामोदर अग्रवाल, सेवक जी सरीखे बहुत नाम गिनाए जा सकते हैं, पर इधर लिख ररहे किसी उस्ताद कवि का नाम लेना हो, तो मैं रमेश तैलंग का नाम लेना ही पसंद करता हूँ। कोई मुझसे कहता है, मनु जी, आपकी बच्चों की कविताएँ देखीं। अच्छी लगीं। तो मैं कहता हूँ अभी आपने रमेश तैलंग को नहीं पढ़ा। उन्हें पढ़ा होतता, तो ऐसा न कहते। बाल कविताएँ तो तैलंग लिखते हैं और हम सब तो बस उन्हें स्पृहा से निहारते भर हैं कि ओहो, ऐसी जानदार और शानदार बाल कविताएँ जिनमें बच्चे का शरारती मन और उसकी संवेदना छलक रही होती है, भला लिखी कैसे जाती हैं।

रमेश तैलंग और देवेंद्र के साथ मेरी चुनी हुई बाल कविताओँ का संग्रह हिंदी के नए बालगीत निकला था, जिसमें सबसे अधिक सराही गई थीं तैलंग की कविताएँ। अभी कुछ अरसा पहले सरला प्रकाशन से बच्चों के प्रिय कवि पुस्तक माला निकाली, तो तैलंग को तो उसमें होना ही था। उस संग्रह का नाम है--टिन्नी जी, ओ टिन्नी जी। उसमें से तैलंग की निक्का पैसा कविता यहाँ दे रहा हूँ। लीजिए आप भी इसका आनंद लीजिए--

निक्का पैसा

निक्का पैसा कहाँ चला,
कहाँ चला जी, कहाँ चला।

पहले रहा हथेली पर
फिर जा गुड़ की भेली पर
चिपक गया चिपकू बनकर
यहाँ चला न वहाँ चला।

धूप लगी, गुड़ पिघल गया
निक्का पैसा निकल गया
कहाँ चलूँ की झंझट में
गिरा सेठ की गुल्लक में
यहाँ चला न वहाँ चला।

किसी तरह मौका पाकर
गुल्लक से निकला बाहर,
खुली सड़क थी इधर-उधर
लुढ़क चला सर-सर, सर-सर।

यहाँ चला फिर वहाँ चला
मौज उड़ाई, जहाँ चला।

(सरला प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित टिन्नी जी, ओ टिन्नी जी से साभार। बच्चों के प्रिय कवि पुस्तक-माला। चयन-संपादन - प्रकाश मनु)

देवेंद्रकुमार की बाल कविताओं का अंदाज


देवेंद्रकुमार बच्चों के लिए क्या नायाब कहानियाँ और उपन्यास लिखते हैं और खूब लिखते हैं। मैं 31 जनवरी, 1986 को नंदन में जाइन करने के लिए पहुँचा, तब पहले दिन ही देवेंद्र के जादू को महसूस किया था और फिर दिनोंदिन उसका असर बढ़ता ही गया। नंदन में हम लोग बच्चों के लिए कहानियाँ लिखते समय पहले आपस में खूब अच्छे से डिस्कस कर लिया करते थे। तब मैंने देखा कि कहानी कैसे देवेंद्र के रोम-रोम में बसी हुई है और डिस्कशन के दौरान वे कहानी की किसी ऐसी दिशा की ओर संकेत कर देते कि कहानी लिखते समय वह कुछ की कुछ हो जाती और उसमें नई चमक, तराश और ताजगी आ जाती। बाद में मैं सोचता, अरे, कहानी की यह दिशा तो हमें अज्ञात ही थी। देवेंद्र जी ने किस उस्तादी से हमारा ध्यान उधर खींचा, जो कहानी की बनी-बनाई लीक से एकदम अलग थी और कहानी में जान आ गई।

देवेंद्र का यही जादू और उस्तादी कहानियों के संपादन के समय देखने को मिलती और खुद उनकी कहानियों और उपन्यासों में भी, जिनमें वे बात कहते नहीं हैं, बस चुपके से सरका देते हैं और उस चुपके से कह दी गई बात का असर इतना गहरा होता है कि तमाम-तमाम लीक पर चलने वाली कहानियाँ उसके आगे फीकी और निस्तेज लगती हैं।

पर यहाँ मैं देवेंद्र की कहानियों और उपन्यासों के बारे में ज्यादा नहीं कह रहा। उन पर कुछ लिखने के लिए तो लंबा स्पेस और फुर्सत चाहिए। अलबत्ता, बातों-बातों में एक दिन देवेंद्र की बच्चों के लिए लिखी गई कविताओं का जिक्र चला, और उन्हें पढ़ा तो लगा कि देवेंद्रकुमार की बाल कविताओं का अपना अंदाज है। आगे चलकर हिंदी के नए बालगीत संग्रह निकला जिसमें रमेश तैलंग, देवेंद्र और मेरी चुनी हुई बाल कविताएं हैं। सरला प्रकाशन ने मेरे सुझाव पर बच्चों के अच्छे कवियों की चुनिंदा बाल कविताओं के संचयन निकाले, तो उनमें भी देवेंद्र शामिल थे। उनकी पुस्तक का नाम है, यह है हँसने का स्कूल।

तो मित्रो, देवेंद्र की कविता हँसने का स्कूल पढ़िए और खिल-खिल हँसिए--


यह है हँसने का स्कूल

जल्दी आकर नाम लिखाओ
पहले हँसकर जरा दिखाओ,
बच्चे जाते रोना भूल--
यह है हँसने का स्कूल।

पहले सीखे खिल-खिल हँसना
बढ़कर गले सभी से मिलना,
सारे यहीं खिलेंगे फूल--
यह है हँसने का स्कूल।

झगड़ा-झंझट और उदासी
इनको तो हम देंगे फाँसी,
हँसी-खुशी से झूसम-झूल--
यह है हँसने का स्कूल।

(सरला प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित यह है हँसने का स्कूल पुस्तक से साभार। बच्चों के प्रय कवि पुस्तक-माला। संपादकः प्रकाश मनु)

Monday, May 23, 2011

डा. शेरजंग गर्ग के नटखट शिशुगीत

मित्रो,
डा. शेरजंग गर्ग मुझ इकसठ बरस के बाल-मना लेखक के पसंदीदा कवि और गुरु भी हैं। खासकर बढ़िया और नायाब शिशुगीत कैसे होते हैं या क्या हो सकते हैं, यह डा. शेरजंग गर्ग से सीखा जा सकता है। और नए ही नहीं, बरसों से लिख रहे पुराने और जमे हुए लेखक भी उऩसे यह गुर सीख सकते हैं--अगर वाकई वे जमकर कुछ करना चाहते हैं तो।

अलबत्ता हो-हो हँसते मि. जोकर में शामिल डा. गर्ग के बड़े ही नटखट और कभी न भूलने वाले शिशुगीतों में से कुछ बढ़िया शिशुगीत यहाँ पढ़िए--

दादी अम्माँ

हलवा खाने वाली अम्माँ,
लोरी गाने वाली अम्माँ।
मुझे सुनातीं रोज कहानी,
नानी की हैं मित्र पुानी।
पापा की हैं आधी अम्माँ,
मेरी पूरी दादी अम्माँ।

राजा-रानी

रामनगर से राजा आए
श्यामनगर से रानी,
रानी रोटी सेंक रही है
राजा भरते पानी।

गुड़िया की शादी

लड्डू, बरफी जमकर खाओ
ढोल मँजीरे खूब बजाओ।
है नन्ही गुड़िया की शादी
नहीं किसी बुढ़़िया की शादी।

चूहा-बिल्ली

बिल्ली-चूहा चूहा-बिल्ली,
साथ-साथ जब पहुँचे दिल्ली।
घूमे लाल किले तक पहले,
फिर इंडिया गेट तक टहले।
घूमा करते बने-ठने से,
इसी तरह वे दोस्त बने से।

चिड़िया

फुदक-फुदककर नाची चिड़िया,
चहल-पहल की चाची चिड़िया।
लाई खबर सुबह की चिड़िया,
बात-बात में चहकी चिड़िया।

(सरला प्रकाशन, दिल्ली से छपी किताब हो-हो हँसते मि. जोकर से सभार।
बच्चों के प्रिय कवि पुस्तक-माला। चयन-संपादनः प्रकाश मनु)

कन्हैयालाल मत्त की अद्भुत बाल कविताएँ

मुझे याद है, मैं किशोरावस्था में था, तब कन्हैयालाल मत्त, बालकृष्ण गर्ग, सूर्यभानु गुप्त और दामोदर अग्रवाल जी के बालगीत अकसर धर्मयुग के पन्नों पर छपा करते थे। वे मुझे इतने अच्छे लगते थे कि मैं उन्हें काटकर एक डायरी में चिपकाता था, फिर घर और आसपास के बच्चों को इकट्ठा करके उन्हें सुनाया करता था। सुनकर बच्चे झूम उठते थे।

मत्त जी की उन कविताओं की खुशबू अब भी मन में बसी हुई है। बाद में तो ऩंदन के कवि एकः रंग अनेक में उनकी कविताएँ छापने की योजना बनी, तो उन्हें और भी जमकर पढ़ने का मौका मिला। उनसे मिलने का भी प्यारा सुयोग मुझे मिला। और जब-जब उनसे मिला, हर बार यही लगा, ईश्वर ने उन्हें एक से एक मोहक बाल कविताएँ लिखने के लिए धरती पर भेजा है। उनसे मिलने पर अच्छी बाल कविताओं की चर्चा हुई तो उन्होंने एक बात कही थी जो मैं आज तक नहीं भूल पाया। उनका कहना था कि अच्छी बाल कविता वह है, जिसे पढ़कर बच्चे के मन की कली खिल जाए।

आज भी मुझे लगता है, बाल कविता, बल्कि समूचे बाल साहित्य की इससे सटीक और सार्थक परिभाषा कोई और हो नहीं सकती।

अलबत्ता, यहाँ बाल साहित्य से जुड़े मित्रों और बाल पाठकों के लिए मत्त जी की यह कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ--


चिड़िया रानी, किधर चली

चिड़िया रानी
चिड़िया रानी,
किधर चली।

मुन्ने राजा
मुन्ने राजा,
कुज-गली।

चिड़िया रानी,
चिड़िया रानी,
पर निकले।

मुन्ने राजा
मुन्ने राजा,
नीम के तले।

चिड़िया रानी
चिड़िया रानी,
टी टुट-टुट।

मुन्ने राजा
मुन्ने राजा
चाय-बिस्कुट।

चिड़िया रानी
चिड़िया रानी,
टा-टा-टा।

मुन्ने राजा
मुन्ने राजा,
सैर-सपाटा।

(सरला प्रकाशन, दिल्ली से छपी पुस्तक जमा रंग का मेला से साभार। बच्चों के प्रिय कवि पुस्तक-माला।
चयन-संपादनः प्रकाश मनु)